सोमवार, 27 दिसंबर 2010

स्मृतियों के उपवन की मधुर सैर है "कितने अपने"

    मनुष्य कितना ही विकास क्यों न कर ले किन्तु वह स्वयं को स्मृतियों से मुक्त नहीं कर पाता है। पता नहीं यह मोहपाश है अथवा बीते पलों को न भुला पाने की विवशता कि व्यक्ति जाने-अनजाने ही स्मृतियों के विशाल उपवन में विचरण करने लगता है। सुखद पलों की सोंधी महक एसे भटकाती है तो दुःखद पलों के काँटों की चुभन एक टीस पैदा करती है। डॉ0 वीणा श्रीवास्तव की स्मृतियों का उपवन उन्हें भी कभी महकाता है तो कभी एक टीस सी देता दिखता है। इन स्मृतियों का वे आज जिस तरह स्वयं अनुभव करतीं हैं वही अनुभव ‘कितने अपने’ के द्वारा अपने पाठकों को भी करवातीं हैं।

    ‘अब वो मिठास कहाँ’ से शुरू उनकी स्मृति-यात्रा पैंतीस सोपानों से गुजरते हुए अन्त में वर्तमान में खड़ा करती है। इस पूरी स्मृति-यात्रा में हर पल यही अनुभव होता रहा कि हाँ, ऐसा तो कुछ मेरे साथ भी हुआ है। ‘कितने अपने’ का आरम्भ ही समूची स्मृतियों का सूत्र-वाक्य लगता है कि ‘उस गुठली या फाँकों में जो मिठास थी वो अब किलो भर आम या पूरे खरबूजे में कहाँ? वो मिठास तो संतुष्टि की थी, आम या खरबूजे की नहीं।’
 
    बचपन की स्मृतियों में ले जाती लेखिका तत्कालीन समाज का चित्र भी अनायास हमारे सामने खींच ले जाती हैं। ‘कमथान साहब’ ‘बटेश्वरी चाचा’ ‘बहर साहब’ के लबों से गुजरता ‘हुक्का’ बाबू जी के मुँह पर रुकता तो वह मात्र विषयों की चर्चा, किसी निर्णय, पारिवारिक मसलों का आधार नहीं बनता वरन् तत्कालीन सामुदायिकता का परिचायक भी बनता है। संयुक्त परिवारों की दृढ़ता के साथ-साथ सामाजिक सम्बन्धों को भी पुष्ट करता दिखता है। ऐसी सामुदायिक भावना के मध्य ही लेखिका ‘परमट वाली बहू’ ‘चुन्नीगंज वाली महाराजिन’ तथा ‘रामानुज चाचा’ के गुम हुए चेहरों को खोजती है, जो परिवार के सदस्य न होकर भी एक पारिवारिक सदस्य की भाँति आदर और सम्मान के पात्र रहे। ‘जहाँ देखो वहाँ मुखौटे ही मुखौटे हैं। चलो ढूँढती हूँ इन्हीं मुखौटों में शायद कुछ लोग ऐसे मिल जायें जिन्हें मैं कह सकूँ ये ‘कितने अपने’ हैं, की एक टीस के बीच लेखिका पुराने सम्बन्धों का आधार तलाशने का प्रयास भी करती हैं।
 
    लेखिका डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का संगीत के साथ-साथ साहित्य से भी जुड़ा होना उन्हें अत्यधिक सम्वेदनशील बनाता है। यही कारण है कि वर्तमान कालखण्ड से कहीं बहुत दूर किसी समय में जब वे स्वयं बचपन की शरारत, मासूमियत, निश्छलता को जी रही थीं, उन्हें उस समय की कुछ किरिचें आज भी चुभती हैं। इसी चुभन के बीच वे पारिवारिक संरचना की मिठास को खोजती हुई तुरन्त ही ‘पीपल की शादी’ ‘वह तोड़ती ईंट’ जैसी मनोवैज्ञानिक वेदना को भी प्रदर्शित करती हैं।
 
    ‘रंगपासी’ के माध्यम से आँगन में खड़ी दीवार की टीस, विभा का ‘प्रेमघट, रीता का रीता’ रह जाना, ‘मुनिया’ का पिंजड़े में बद्ध जीवन, शोभा के प्रति डॉक्टर की ‘अमानुष’ होने की वेदना को गहराई से प्रकट करना लेखिका के सम्वेदनशील होने का प्रमाण है। इसी सम्वेदनशीलता के कारण वे बचपन की ‘पतंग’ को न उड़ा पाने की विवशता को याद रख पाती हैं तो छोटी सी चवन्नी के सहारे बालसुलभ प्रतिद्वन्द्विता के रूप में अपनी सहेलियों को प्रत्युत्तर भी देती हैं तथा खुद को क्षणिक अमीर बने होने का भाव भी हृदय में सहेजे रह पाती हैं।
 
    परिवार, रिश्ते, नाते, सम्बन्धियों, दोस्तों, सहेलियों के आत्मीय व्यवहार को अपनी सुखद स्मृतियों में सँजोये लेखिका प्रकृति प्रेम को भी आत्मीय रूप में अपने में समाहित किये हैं। तभी उन्हें खजुराहो की कलाकृतियों में, मंदिरों में एक प्रकार का दर्शन दिखता है तो हिमालय की चोटियों, पर्वत श्रेणियों, झीलों, जलप्रपातों में मानवीय गुणों को देख उनका मन मंत्रमुग्ध हो उठता है। सम्वेदनशील हृदय की मलिका होने के कारण यदि वे अपनी ‘बिटिया’ के प्रति संवेदित हैं तो नन्हे से खरगोश चीकू के प्रति भी असंवेदनशील नहीं होती हैं। इसी स्वच्छ और निर्मल चित्त होने के कारण उन्हें और उनके पूरे परिवार को नारियल में माँ दुर्गा के साक्षात दर्शन प्राप्त होते हैं।
 
    ‘कितने अपने’ की लेखिका डॉ0 वीणा श्रीवास्तव का लगाव संगीत से बचपन से ही रहा है। ‘गुरु कृपा’ से वे आज इसी क्षेत्र में अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं। संगीत की लय, तालबद्धता, उतार-चढ़ाव उनके स्मृति-लेखन में भी दिखाई देता है। एक-एक संस्मरण जैसे उनके मन-मष्तिष्क से कागज पर सीधे उतर आया हो। बिना किसी कृत्रिमता के, बिना किसी साहित्यिकता के शब्दों में संगीत की लहरियाँ दिखती हैं, रेखाचित्र सी चित्रात्मकता है तो शब्दों का नैसर्गिक प्रवाह। गीतों की रवानी सी इस पूरे संकलन ‘कितने अपने’ में देखने को मिलती है। बचपन की बात करते-करते अपने परिवार को याद करना, परिवार को याद करते-करते प्रकृति की गोद में चले जाना, प्रकृति की मनमोहक छवि के बीच अपने किसी प्रिय की परेशानी याद करने लगना और इन सबके बीच फिर से बचपन की किसी घटना का स्मरण करने लगना दर्शाता है कि लेखिका ने किसी प्रयास रूप में स्मृतियों का उपवन तैयार नहीं किया है वरन् स्मृतियों का जो स्वरूप मन-मष्तिष्क में उभरता रहा वही ‘कितने अपने’ के रूप में सामने आया। 
 
    बिना प्रयास के स्वतः स्फूर्त रूप से उभरती स्मृतियों के मध्य कुछ कमी सी लगती है। ऐसा शायद उन्हें न लगे जो लेखिका से परिचित नहीं हैं पर जो डॉ0 वीणा जी के सम्पर्क में हैं वे आसानी से उस कमी को देख सकते हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि लेखिका का वरद् हस्त मेरे ऊपर भी है। पिछले कई वर्षों का आत्मीय, पारिवारिक सम्पर्क होने से यह कमी मुझे भी दिखी। स्मृतियों के इस उपवन में उनके छोटे भाई संदीप की महक नहीं दिखती है, उनकी अन्य बहिनों की अंतरंगता परिलक्षित नहीं हुई है, उनके जीवनसाथी डॉ0 अरुण कुमार श्रीवास्तव के सहयोग और प्रेम की विश्वासधारा भी नहीं दिखी, जो महाविद्यालय एक लम्बे अरसे से लेखिका की विविध गौरवमयी उपलब्धियों का मूक दर्शक रहा है उसकी चमक इन स्मृतियों में प्रकाशित नहीं हो सकी। ये स्थितियाँ भी दर्शाती हैं कि लेखिका ने स्मृतियों को सँजोने का जो प्रयास किया है उसको शब्दरूप नहीं दिया है वरन् वे स्वतः, स्वच्छन्द रूप से निर्मित होकर ‘कितने अपने’ के रूप में सामने आईं हैं।
 
    हाँ, इसके साथ यह भी हो सकता है कि जिन स्मृतियों की सुगंध की कमी दिखती है, लेखिका उन कुछ स्मृतियों को अपनी थाती के रूप में सहेज कर उस उपवन में नितान्त निजी रूप में स्वयं ही विचरण करना चाहती हों, उनका अकल्पनीय सुख वे स्वयं ही भोगना चाहती हों।
 
    कुछ भी हो ‘कितने अपने’ के बाद भी अभी और बहुत से कितने अपने शेष हैं जिनसे मिलने को पाठकगण आतुर हैं। आशा है कि डॉ0 वीणा श्रीवास्तव अपने स्मृति-उपवन की सैर आगे भी हम सभी को करवाती रहेंगीं।
 
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कृति-कितने अपने (स्मृतियाँ)
रचनाकार-डॉ0 वीणा श्रीवास्तव
प्रकाशक-नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ-101
मूल्य-रु0 150.00 मात्र
समीक्षक-डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

लौ दर्दे दिल की -- देवी नागरानी (ग़ज़ल संग्रह) की समीक्षा

लौ, जो रौशनी बन गयी

ग़ज़ल ने हिंदी साहित्य मे अपना विशिस्ट स्थान बना लिया है यही कर्ण है की हिन्दी काव्य मे हर तीसरा कवि ग़ज़ल विधा मे अपनी अभिव्यक्ति कर रहा है | दुष्यन्त से लेकर आज तक हजारों गज़लकार ने राष्ट्र और समाज के ज्वलंत विषयों पर अपनी अपनी गज़लों मे चर्चा की है | आधुनिक गज़लकारो में देवी नागरानी का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है जिन्होंने राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी गज़लों से विशेष स्थान बनाया है | उनका नवीनतम ग़ज़ल संग्रह लो दर्द-दिल की इस बात का पक्का सबूत है कि ग़ज़ल अपने कथ्य और शिक्षा से पूरे मानक -समाज मे प्रेम और सदभाव का सन्देश दे रही है यथा -

मुहब्बत के बहते हों धारे जहाँ

वतन ऐसा जन्नत -निशाँ चाहिए

ग़ज़ल कि सार्थकता पर उनकी पंक्तियाँ हाटव्य है -

अनबुझी प्यास रूह कि है ग़ज़ल

खुश्क होठों कि तिशनगी है ग़ज़ल

बचपन कि खुशियों को धर्म-जाति और आंतकवाद के नाग ने डस लिया है | देवी नागरानी के शब्दों मे -

अब तो बंदूके खिलौने बन गई

हों गया वीरान बचपन का चमन

कवयित्री ने गज़लों मे हिन्दी -उर्दू के शब्दों का सुंदर व सटीक प्रयोग किया है जो उनके गहन भाषा ज्ञान का प्रतीक है | एक मतला देखे -

कर गई लौ दर्दे-दिल कि इस तरह रौशन जहाँ

कौंधती है बादलों में जिस तरह बर्के-तपाँ

कवयित्री का समर्थन नारी और गरीब आदमी के लिए है -

चूल्हा ठंडा पड़ा है जिस घर का

समझो ग़ुरबत का है वहां पहरा

नारी होती है मान घर-घर का

वो मकाँ को बनाये घर जैसा

ये पंक्तियाँ भी पाठक और श्रोता को गज़ब का हौसला देती है -

किसी को हौसला देना -दिलाना अच्छा लगता है

ज़रुरत मे किसी के काम आना अच्छा लगता है

देश पर अपनी जान लुटाने वालों को याद करते हुए वे कहती है -

मिटटी को इस वतन कि ,देकर लहू कि खुशबू

ममता का, क़र्ज़ सारा, वीरों ने ही उतरा

कुल मिलाकर देवी नागरानी की गज़लों है जीवन के सभी रंगों का सलीको और संजीदगी से सजाया है जो ग़ज़ल के बेहतर भविष्य का पता देती है| आशा है उनकी ये गज़ले देश- विदेश मे लोकप्रिय होंगी और अपना विशिष्ट स्थान बनाएगी| उन्हें बधाई|

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समीक्षक --

डॉ.रामगोपाल भारतीय

६ ए ब्रिज कुंज, रोहटा रोड , मेरठ (उ० प्र०) भारत. मो. (०९३१९६१८१६९)

संग्रहः लौ दर्देदिल की,

ळेखिकाः देवी नागरानी,

पन्नेः १२०, मूल्यः रु.१५०,

प्रकाशकः रचना प्रकाशन, मुंबई ५०



शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

प्रेम को चरितार्थ करती, अंधकार में दीप जलाती कथा - टेम्स की सरगम

संतोष श्रीवास्तव के उपन्यास --- टेम्स की सरगम की समीक्षा
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प्रेम को चरितार्थ करती, अंधकार में दीप जलाती कथा -
टेम्स की सरगम


समीक्षक
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सुमीता केशवा
2204 क्रिमसन टावर
आकुर्ली रोड, लोखंड्वाला
कांदिवली [ईस्ट] मुंबई






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वरिष्ठ कथा लेखिका संतोष श्रीवास्तव का सद्य प्रकाशित उपन्यास 'टेम्स की सरगम' प्रेम तत्व की स्थापना तक अपनी कृति को पहुंचाने की सार्थक पहल है। इसके पहले उनका उपन्यास 'मालवगढ़ की मालविका' पाठकों के ह्र्दय में अक्स होकर रह गया था। तीन स्तरीय पुरस्कारों से सम्मानित इस उपन्यास के कुछ अंश 'मंगल पांडे' फ़िल्म में भी लिये गये थे। निश्चय ही उनका चौथा उपन्यास 'टेम्स की सरगम' भी पाठकों की अपेक्षाओं में खरा उतरेगा।

कथा आरंभ होती है भारत में अंग्रेजों के शासन के अंतिम चार दशकों के समय से जब ईस्ट इंडिया कंपनी के पदाधिकारी टाम ब्लेयर का जहाज भारतीय तट को छूता है। साथ में उसकी अत्यंत खूबसूरत,कमसिन,विदुषी और भावुक ह्रदय वाली पत्नी डायना भी है। कलकत्ते के अपने शानदार आवास में रहते हुए टाम एय्याशी का जीवन यह मानते हुए जीता है कि कालों पर तो केवल शासन किया जा सकता है जबकि डायना जो लंदन में अपने समृद्व व्यापारी पिता की एकमात्र संतान है भारतीय कला और साहित्य से विशेष लगाव रखती है। वह संगीत औए वाध कला में खुद भी पारंगत होना चाहती है। भारतीय साहित्य को अच्छी तरह समझने के लिए वह संस्कृत, हिन्दी और बांग्ला भाषाएं सीखती है। और साथ ही संगीत भी। टाम से निरंतर अवहेलना, दुर्व्यवहार पा उसका कोमल मन चीत्कार कर उठता है और वह अपने संगीत गुरु चंडीदास से प्यार कर बैठ्ती है। चंडीदास आकर्षक,युवा, बंगाली है जो स्वयं भी डायना की तरफ़ आकर्षित है। परस्पर अनुभूतियों और खिंचाव में बद्व दोनों ही एक दूसरे को ऐसा प्रेम करते हैं जो ईश्वरीय स्वरुप ले लेता है। लेखिका ने इस प्रेम को इतिहास में ऐसा गूंथा है कि उस समय का यथार्थ,रहन सहन,सामाजिक उथल पुथल आजादी के प्रति दीवानगी आदि बातें एक सूत्र की तरह जुड्ती़ जाती हैं। इतिहास को अर्थ तभी मिलेगा जब मनुष्य प्रेम के तत्व को पहचान कर उसे प्राप्त कर लेगा।

पूरे उपन्यास में कलकत्ते का जीवंत वर्णन है। उस जमाने बतौर शान इस्तेमाल की जाने वाली फ़िट्न, अंग्रेज हुक्मरानों की विशाल कोठियां और बगीचे के खूबसूरत पुकुर। ऐसे जीवंत माहौल में संगीत का रियाज होता है और डायना सीखती है भारतीय संगीत ।

टाम के स्त्री विषयक विचार एक पितृसत्तात्मक समाज को रचते हैं। ऐसे में नादिरा जैसे पात्रों के कथन....''ईसा मसीह कहते हैं औरतों और कोढ़ियों पर दया करो...यानी कि औरतों के अधिकारों को स्वेच्छा से या दया दिखाते हुए स्वीकार किया है पश्चिम के देशों में...बड़ा उपेक्षापूर्ण नजरिया है वहां। नारी विमर्श की अछूती पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। आज जब विभिन्न नारी संगठनों द्वारा इस विषय पर काफ़ी कुछ चर्चा में है लेखिका ने सहज ही इसे उठाया है।

पूरे उपन्यास में इस तरह के वाकये हैं जो भले ही कथा के मूल विषय से परे हैं पर कथा सूत्र को आगे बढ़ाने में और कथा समय के यथार्थ को चित्रित करने में एक अलग ढंग का ट्रीटमेंट बनकर उभरे हैं। उपन्यास में तीन अलग-अलग ढंग के बिल्कुल अनछुए से प्रेम प्रसंग हैं। एक ओर डायना जो भले ही लंदन में पैदा हुई पर भारत आकर और चंडीदास से प्रेम करके बिल्कुल भारतीय हो गई। उसके भारतीय होने पर किसी का उस पर दबाव न था। यह प्रेम का ऐसा समर्पित स्वरुप था जो केवल राधा कृष्ण के प्रेम में ही दिखलाई देता है। वह राधा बनकर अपने चंडीदास में समा गई जिसके व्यक्तित्व में उसे हमेशा कृष्ण दिखते थे। वह कृष्ण को बंगाल के कण-कण से आत्मसात करने लगी और चंडीदास को ह्रदय में उतारती चली गई, मानो कृष्ण कह रहे हों- ''मैं हूं तुम दोनो में समाया...तमाम अधीर लिप्साओं के वशीभूत तुममें उछाहें भरता....राधा ने बांसुरी में सुर भरे और स्वयं गूंज बनकर सृष्टि के कण-कण में समा गई। चंडीदास और डायना का प्रेम कोई साधारण प्रेम न था,दिव्य प्रेम था जिसमें आसपास की घटनाएं,अंग्रेजों के भारतीयों पर होने वाले अत्याचार,सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज,उनका पलायन,बंगाल का आकाल था और साथ-साथ चल रही थी टाम की एय्याशी की कथा,एक गढ़ा हुआ तिलिस्म जिसमें उसकी तमाम ज्यादतियों, फ़्लर्ट के साथ-साथ डायना के प्रति थोपी हुई जिन्दगी के कुछ हिस्से मन को कुरेद जाते हैं, ऐसे में डायना का चंडीदास के प्रति समर्पण संतुष्टि देता है जैसे कि एक दुराचारी के संग साथ का यही अंत होना चाहिए।

दूसरी ओर गुनगुन और सुकांत हैं जो देश को आजादी दिलाने के लिए आजाद हिन्द फ़ौज के सिपाही हैं। दोनों ने सिर पर कफ़न बांधकर प्रेम की शपथ ली है और जब दोनो एक साथ अंग्रेज सिपाही की गोली का शिकार होते हैं तो सुकांत के शरीर से निकला रक्त बह-बह कर पास ही निर्जीव पड़ी गुनगुन का माथा भिगो देता है....'लो, मेरी प्रिया, आज मैने अपने रक्त से तुम्हारी मांग भर दी आज मैंने तुम्हें वरण किया। तीसरी ओर मुनमुन और सत्यजीत हैं जो बिना किसी वैवाहिक बंधन के युवावस्था से बुढ़ापे तक साथ-साथ रहे और ऐसा डूब कर प्रेम किया जिसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। मुनमुन की मृत्यु सत्यजीत को तोड़ती नहीं है बल्कि वह अपनी यादों में उसे तब तक जीवित रखने का प्रण करता है जब तक वह अंतिम सांस न ले ले।

इन तीनो प्रेम प्रसंगों में जो विविधता है वह उपन्यास की कथा को गहराई तक पहुंचाती है। लेखिका ने इन प्रेम प्रसंगों की जटिलता में,बुनाव में जो बारीकी रची है अर्थात सम्बन्धों की प्रगाढ़ता ,अपने-अपने उद्देश्य और ल्क्ष्य की प्राप्ति,अप्राप्ति है वह कथा की पठनीयता को बेजोड़ सिद्व करती है। प्रकृति का मानवीकरण कथ्य की विशेषता है जिसके जरिये माहौल, भावनाएं उभर कर आती हैं। जैसे...''शाम ने परछाइयां समेट ली थीं और जादूगरनी सी परछाइयों की पिटारी लिए दबे पांव चली गई थीं।....अभी-अभी सूरज ने डुबकी लगाई है और अभी-अभी उसकी डुबकी से चकित चांद नभ से झांका है।''

डायना एक विदुषी,जागरुक और ईमानदार पात्र के रुप में उभरी है। उसका शान्तिनिकेतन जाना,रवीन्द्र्नाथ ठाकुर के भाषण,व्यक्तित्व से प्रभावित होना,जयदेव के गांव केंदुली जाना और गीत गोविंद की संरचना को कल्पनातीत महसूस करना कुछ ऐसे वाकये हैं जो लेखिका की रचना प्रक्रिया के दौरान उसके गहन अध्ययन को रेखांकित करते हैं। जगह-जगह बांग्ला गीतों का गायन चंडीदास और डायना से कराना कथा की प्रमाणिकता सिद्व करते हैं। ये गीत देश-काल और माहौल को उजागर करने में बड़े सहायक हुए हैं। डायना की मृत्यु के बाद उसके और चंडीदास के प्रेम की निशानी उनकी बेटी रागिनी कथानक को डिस्टर्ब किये बिना ऐसी जुड़ती है कि कब उपन्यास रागिनी पर केन्द्रित हो गया, पता ही नहीं चलता। हालांकि जिस परिवेश में रागिनी पली बढ़ी और जिस अपसंस्कृति का शिकार हुई उसके बाद उसका भारत आगमन, कृष्ण पर शोध और अंत में सारी समृद्वि दान कर वृंदावन में कृष्णमयी हो जाना सम्राट अशोक और राजकुमार सिद्धार्थ के इस देश में कोई अछूती घटना नहीं है। रागिनी मानसिक तनाव से जूझ रही थी। माता पिता के प्रेम को तरसती, प्रेम में मिले धोखे को लेकर उसकी भटकन और कुंठा उसे वृंदावन तक खींच लाई थी। सांस्कृतिक और सामाजिक बल्कि देशीय बदलाव भी रागिनी ने महसूस किया और भोगा भी। अपने जीवन के संक्रमण सहित अगर वह अध्यात्म की ओर अग्रसर हुई तो यह उसकी मानसिकता की पूर्णता ही है भटकाव नहीं.....''मैं हूं ही नहीं...तो वेदना कैसी ? मैं कृष्ण में समा गई हूं, अब कुछ नहीं दिखता सिवा कृष्ण के...अब तो बेलि फ़ैल गई कहा करें कोई....

बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में भारत की सामाजिक स्थिती और बदलावों का विस्तृत वर्णन इस उपन्यास में है। सिनेमा,नाटक,गायन, वादन कलकत्ता,बम्बई का अभिजात वर्ग और कला का दीवाना युवा वर्ग जो कला के साथ-साथ मौजूदा परिस्थितियों को भी नज़र की सीमा में रखता है। बंगाल के आकाल की विद्रूपता,विड्म्बना को दूर करने में नाटक के द्वारा धन संग्रह,चंदा आदि कार्यों को करने से नहीं चूकता। लेखिका की पैनी दृष्टि ने उस काल का बखूबी चित्रण अपनी लेखनी में उंडेला है।

बेहद असरदार,खूबसूरत भाषा से युक्त यह उपन्यास उन दशकों को भारतीय मंच पर बड़ी सुघड़ता से फ़ोकस करता है। घटनाएं एक बहाव में घटती चली जाती हैं और उन समीकरणों को तलाशती,उजागर करती एक विस्तृत कैनवास में ढलती चली जाती हैं।

यह पटाक्षेप है या अन्तिम दृश्य की शुरुआत इस वाक्य में जैसे सम्पूर्ण उपन्यास का कलेवर सिमट आया है। कहना न होगा कि यह उपन्यास पाठकों के बीच निश्चय ही अपनी ज़गह बनायेगा।

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टेम्स की सरगम-
मानव प्रकाशन
131 चितरंजन एवेन्यू
कोलकाता-700073-
पृष्ठ-273

मंगलवार, 4 मई 2010

प्रतिभा जौहरी का कहानी संग्रह --- "मुखौटे"


सुप्रसिद्ध कथा-लेखिका प्रतिभा जौहरी का नया कहानी संग्रह मुखौटे अपने छोटे से फलक में विस्तृत संसार समेटे हैं। संग्रह की बारह कहानियों की बुनावट में सरलता की अद्भुत बानगी दिखायी देती है। शहरी जीवन के पात्रों को केन्द्र में रख कर कहानियों को विविधता प्रदान की गयी है। प्रतिभा जी की कहानियाँ सरलता से प्रवाहपूर्ण रेखांकन कर जीवन-जगत के तमाम मुखौटों को प्रदर्शित करती हुईं उनके पीछे छिपी सच्चाई को उजागर करतीं हैं।पूर्ण समन्वित
‘मुखौटे’ कहानी वर्तमान समाज की वास्तविकता को सुन्दरता से बयान करती है। हकीकत को जानने समझने के बाद भी कुछ न कर पाने की विवता कहानी के पात्र दिने को क्रान्तिकारी कदम उठाने को विव करती है। राजनीति, मीडिया के मिले-जुले घालमेल के मध्य दिने का रद्दी की टोकरी में से टेप को निकालना व्यवस्था परिवर्तन का संकेत करता है।

लेखिका के जीवन का एक बड़ा हिस्सा समुद्री यात्राओं, जहाजों की दुनिया में गुजरा है। कहानियाँ शांत सागर से उठा तूफान’ तथा ‘चंद कागज के टुकड़े’ सागर जीवन की सच्चाई से अवगत कराती हैं। सागर की अथाह जलराशि के मध्य अनुकूल मौसम, स्वच्छ नीला आसमान कब संकट के बादलों को ला खड़ा कर दे; कैसे एक निर्णय जीवन और मृत्यु को तय कर दे, इसे इन कहानियों के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है। एक छोटी सी गलती किस प्रकार समूचे जीवन के दर्शन को प्रभावित कर देती है यह सत्यता अर्जुन ने अपने साथी को खोकर ही ज्ञात होती है।

छोटे भाई द्वारा लाई चूड़ियों को लेते समय सलमा के चेहरे पर जो चमक थी वह उसकी नन्हीं, कोमल सी उँगलियों में घाव देखकर मिट जाती है। पहले से झुलसी उँगलियाँ, उनमें फिर से आग की तपन, चेहरे का दर्द महसूस करने से सलमा को चूड़ियों की खनक में दर्द भरी कराह सुनायी देती है। बाल मजदूरी के दर्द को उभारती कहानी ‘झुलसी पंखुड़ियाँ’ दे के दुर्भाग्य को दर्शाती है जहाँ गरीबी की मार से नौनिहालों को नारकीय जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है और परिवार, समाज, सरकार सभी अनजानी सी खामोशी ओढ़े हैं।

बाल मजदूरी का एक विकृत स्वरूप हमें अपने ही घरों में देखने को मिलता है। परायेपन की ग्रन्थि के वषीभूत बच्चों की भोली दुनिया, मासूम मुस्कान, पावन सपनों को अपने पैरों तले किस प्रकार से रौंद देते हैं, इसका संवेदनशील चित्रण ‘अनजाना रिश्ता कहानी में लेखिका ने किया है। ‘‘आप आराम से नही बैठ पायेंगे तो मुझे डाटेंगे’’ का डरा-सहमा सा भाव पाठकों की आँखों को बच्ची बसंती के दुःख से गीला करता है तो हेमंत द्वारा उसको अपनाने की पहल पर ख़ुशी के आँसू बहते हैं।

मध्यमवर्गीय परिवार की छोटी-छोटी आवष्यकताओं पर त्रासदियों का साया इस प्रकार से पड़ा होता है कि वह चाह कर भी सामाजिक, पारिवारिक सम्बन्धों का निर्वहन प्रसन्नतापूर्वक नहीं कर पाता है। ‘मेवालाल की रज़ाई’ में एक-एक पैसे की जुगाड़ बैठाते आदमी की कड़वी सच्चाई है तो किसी न किसी प्रकार दूसरों की जेब पर डाका डालते लोगों की हकीकत है। अपनी ही रजाई को बापस लेने के लिए दो सौ रुपये देने की अक्षमता के कारण मेवालाल अंत में रजाई छोड़ कर चला जाता है।

संग्रह की अन्य कहानियाँ प्रतिभा जी की समकालीन यथार्थ पर गहरी पकड़, मनोवैज्ञानिक समझ को प्रदर्शित हैं। इसी कारण वे परिवेश के प्रति सजगता एवं पठनीयता का प्रवाह दिखाती हैं।

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पुस्तक : मुखौटे (कहानी संग्रह)
लेखिका : प्रतिभा जौहरी
प्रकाशक : समय प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : रु0 150=00
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शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

पुस्तक समीक्षा - निर्मला कपिला - सच को जिन्दा रखने की "अनुभूतियाँ"

पुस्तक समीक्षा --- *अनुभूतियाँ*
द्वारा- श्रीमती निर्मला कपिला
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जब कि पुस्तक समीक्षा मेरी लेखन विधा नही है मगर जब दीपक चौरसिया 'मशाल' की पुस्तक *अनुभूतियाँ* पढी तो अपने मन में उपजी अनुभूतिओं को लिखे बिना रह नहीं पाई। इस पुस्तक की जिस बात ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वो है मानवीय सम्बन्धों की सुगन्ध, उस सुगन्ध में महके बचपन की अनुभूतियां, स्मृतियाँ और संस्कार। फिर भी उसने समाज के इन्सान के राजनीति के अच्छे बुरे सब पहलूओं पर बेबाक कलम चलाई है।

हर कविता अपने को प्रतीक मान कर उसकी आत्मानुभूतियाँ हैं, जो देखा जो भोगा। ऐसे समय मे जबकि रिश्तों की अहमियत लुप्त हो रही है संयुक्त परिवार की परंपरा खत्म हो रही है, एक युवा कवि का उन रिश्तों की अहमियत की बात करना निस्सन्देह किसी संस्कारवान व्यक्तित्व की ओर इशारा करता है और ये सुखकर भी लगता है।

दीपक आज भी उन रिश्तों की यादें मन मे संजोये हैं जिन मे रह कर वो पला बढा और जो अब दुनिया मे नहीं हैं वो भी उसकी यादों मे गहरे से जीवित हैं। उसकी एक कविता ने मुझे गहरे से छुआ है ''*तुम छोटी बऊ*'' --- छोटी बऊ उसके दादा (बाबा) की चाची थीं जो निःसंतान थीं और जिन्होंने पूरा जीवन इस परिवार को समर्पित कर दिया। बऊ से मिले प्यार और बचपन की अबोध शरारतों को जो उनकी गोद मे किया करते थे उन्हें बहुत सुन्दर शब्दों में उतारा है और उसी कविता की ये अंतिम पँक्तियाँ देखें

'कितना ही सुख पाऊँ
मगर हरदम जीत तुम्हारी ही होगी छोटी बऊ
मदर टेरेसा ना मिली मुझे
पर तुम मे देखा उन्हें प्रत्यक्ष
तुम थीं हाँ तुम्हीं हो
मेरी ग्रेट मदर टेरेसा छोटी बऊ'


माँ से दुनिया शुरू होती है शायद हर कवि मन माँ के लिये जरूर कुछ लिखता है

'माँ तेरी बेबसी आज भी
मेरी आँखों मे घूमती है
तुमने तोड़े थे सारे चक्रव्यूह
कौन्तेयपुत्र से भी अधिक
जबकि नहीं जानती थीं तुम

निकलना बाहर....
या शायद जानती थीं
पर नहीं निकलीं
हमारी खातिर,
अपनी नहीं
अपनों की खातिर'

माँ की कुर्बानियों को बहुत सुन्दर शब्दों से अभिव्यक्त किया है।

'दुनिया की हर ऊँचाई
तेरे कदम चूमती है
माँ आज भी
तेरी बेबसी
मेरी आँखों मे घूमती है।'

एक और कविता की ये पँक्तियाँ शायद उसके विदेश जाने के बाद माँ के लिये उपजी व्यथा है।

'यहाँ सब बहुत खूबसूरत है
पर माँ
मुझे फिर भी तेरी जरूरत है'

हर युवा की तरह जवानी के प्यार को भी अभिव्यक्त किया है मगर कुछ निराशा से। *कैसे हो* ये गीत भी गुनगुनाने लायक है। इसमें तारतम्यता, लयबदधता और रस का बोध होता है जिसमे कि दो प्रेम पंछियों को विपरीत स्वभाव वाला कहा गया है....

'उगते हुए लाल सूरज सी तुम
दहकते हुये सुर्ख शोले सा मैं
ठहरे हुये गहरे सागर सा मैं
बहती हुयी एक नदिया सी तुम
तुम मौजों से लड़ना चाहती

मैं साहिल पे चलना चाहता
कहो-कहो तुम्ही कहो...

मुहब्बत मुमकिन कैसे हो?'

हासिल, मजबूरियां, छला गया, इन्तज़ार, कैसे यकीन दिलाऊँ, पागल, मन-चन्चल-गगन पखेरू है, रिश्ता, देखूँगा और चाहत शीर्षक वाली रचनाओं में प्रेमानुभूति के साथ-साथ एक दर्द है किसी को न पा सकने का... मजबूरियाँ देखिये-

'बात इतनी सी है
कि अब जब भी
जमीं पर आओ

इतनी मजबूरियाँ ले कर मत आना
कि हम मिल कर भी
न मिल सकें'

एक और कविता देखिये *मैं छला गया* की कुछ पँक्तियाँ

'दिल मे जिसको बसा के हम
बस राग वफा के गाते थे
हम कुछ तो उसकी सुनते थे
कुछ अपनी बात सुनाते थे
पर दिल मे रह कर दिल को वो
कुछ जख्म से दे कर चला गया
छला गया मैं छला गया'

तो वहीँ बंदिशें एक व्यंग्य रचना है जो कि राजनीतिक सरहदों की बात करती है और चीड, देवदार के पेड़ों के माध्यम से इंसां को समझाती है कि-

'ये सरहदें तुम्हारी बनायीं हैं
और सिर्फ तुम्हारे लिए हैं'

ऎसा नही है कि कवि केवल रिश्तों तक ही सीमित रहा... उसने समाज के विभिन्न पहलुओं को बड़ी बेबाकी से छुआ। समाज मे इन्सान के चरित्र की गिरावट, वैर, विरोध, झूठ-कपट कवि के भावुक मन को झकझोरते रहे है और वो कराहते हुये पुकार उठता है-----

कब आओगे वासुदेव की कुछ पँक्तियाँ

'अधर्म के दलदल में हैं
अर्जुन के भी पाँव
और रथ के पहिये...
कितने कर्ण खड़े हैं

सर संधान करने को
मगर अबकी बार
हल्का क्यों है
सच का पलड़ा?
सच कहो कब आयोगे वासुदेव?'

और अंतर्नाद गीत की एक झलक देखें कैसे उसके पौरुष को ललकारती हैं----

'खुँखार हुये कौरव के शर
गाण्डीव तेरा क्यों हल्का है
अर्जुन रण रस्ता देख रहा
विश्राम नहीं इक पल का है'

ऎक और चीज़ इस पुस्तक में है जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया उसका चिन्तन, जिस से उसकी आत्मा सहसा ही अपने मन के अंतर्द्वंद कह उठती है--

'कृष्ण बनने की कोशिश मे
मैं भीष्म होता जा रहा हूँ
अक्सर चाहता हूँ बसन्त होना
जाने क्यों ग्रीष्म होता जा रहा हूँ'

इसी संदर्भ मे उसकी कुछ कवितायें-- और शीर्षक कविता चेहरे और गिनती, अपने-पराये, थकावट, फैशनपरस्ती, बड़ा बदमाशअनुभूतियाँ सराहने योग्य हैं। ये पँक्तियाँ देखिये----

'शिव रूप पे लगे कलंकों को
तुम कुचल कुचल कर नाश करो
नापाक हुई इस धरती को
खल रक्त से फिर से साफ करो
जो हुया विश्व गुरू अपराधी
आयेंगे फिर न राम
प्रभु कर भी दो विध्वंस जहां'

कई बार खुद अपने को ही समझ नही पाता---- *विलीव इट और नाट* जिसमे आदमी को कई चेहरे लगाये दुनिया का बेस्ट एक्टर कहता है अपने माध्यम से। ये पंम्क्तियां देखिये----

'स्वप्नों मे आ कर
धमकाती हैं
धिक्कारती हैं
मेरे अन्तस की अनदेखियाँ
झपकती पलकों की अनुभूतियाँ'

कई बार तो इस छट्पटाहट से हताश हो कर वो मन ही मन इन चुनौतिओं से समझौता करने की बात करने लगता है---- मन के कोलाहल को शाँत करने की कोशिश करता है----

'जब किस्मत में
उनके साथ ही रहना लिखा है

तो क्यों न उन से
समझौता कर लूँ
बस इस लिये मैंने....
मेरी उलझनो ने...
और मेरी परिस्थितिओं ने
आपस मे समझौता कर लिया।'

नारी संवेदना को भी उसने दिल से समझा और महसूस किया है। वो आतंकवाद समझती है, साबित करने के लिये, परंपरा की चाल विशेष रूप से उल्लेखनीय रचनायें हैं... परम्परा की चाल स्त्री की तकलीफ भी है और रूढ़िवादी, अनावश्यक परम्परा के खिलाफ आवाज़ भी. साबित करने के लिए देखिये-

'तुम समन्दर हो गये

वो कतरा ही रह गयी
फिर भी डरते हो क्यों
कि वो कहीं उठ न जाये
तुम्हें कतरे का
कर्जदार साबित करने के लिये'

वो देश की राजनीति पर भी मौन नहीं रहा। बापू गान्धी को प्रतीक बना कर आज की राजनीति को उसने खूब आढे हाथों लिया है। *बापू भी खुश होते*, *बोली कब लगनी है* और *तुम न थे* देशभक्ति, राजनीतिक कटाक्ष और महापुरुषों से सीख देने के लिए प्रेरक उल्लेखनीय रचनायें हैं-

'बापू तेरी सच्चाई की
बोली कब लगनी है
घडियाँ, ऐनक सब बिके
कब प्यार की बोली लगनी है'

और जो सब से अच्छी कविता इस सन्दर्भ में मुझे लगी वो है लोकतन्त्र को लेकर--

'मैं अबोला एक भूला सा वेदमंत्र हूँ
खामियों से लथपथ मैं लोकतन्त्र हूँ

तंत्र हूँ स्वतन्त्र हूँ,दृष्टी मे मगर ओझल
मैं आत्मा से परतन्त्र हूँ
कहने को बढ रहा हूँ
पर जड़ों मे न झाँकिये
वहाँ से सड़ रहा हूँ मैं'

और अन्त मे कुछ नया सोचने के लिये प्रेरित करती पँक्तियाँ

'नये सिरे से सोचें हम
नयी सी कोई बात करें'

*सिगरेट*, बेरोजगारी, जन्मदिन, खंडहर की ईँट, दशहरा, पतंग रचनायें विभिन्न विषयों पर अनुभूतियों के समेटे हैं और सामजिक सरोकारों को लेकर लिखी गयी हैं। कवि अपनी अनुभूतिओं को कोई आवरण नहीं ओढाता बस जस की तस सामने रख देता है। कई बार वहाँ रस और लय का अभाव खटकता है मगर उसने अपने अन्दर के सच को ज़िन्दा रखने के लिये शब्दों से, कोई समझौता नहीं किया। जैसा की वैदेही शरण 'जोगी' जी ने कहा है कि दीपक की अनुभूतियाँ सत्य की ऊष्मा की अनुभूतियाँ हैं और डाक्टर मोहम्मद आजम जी ने दीपक के बारे मे कहा है कि इनमे कसक, तडप, सच्चाई, बगावत, आग, जज़्बात, इश्क, तहज़ीब, देशभक्ति, तंज व व्यंग, रिश्तों की पाकीज़गी आदि वो सब गुण हैं जो एक व्यक्ति को कवि,शायर का दर्ज़ा देते है।

इस पुस्तक का पूरा श्रेय वो अपने परम आदरणीय गुरूदेव श्री पंकज सुबीर जी को देता है। आज के युवाओं मे गुरू शिष्य परंपरा का जीवन्त उदाहरण है उस का ये समर्पण ।

पुस्तक का आवरण साज-सज्जा सहज ही आकर्षित करती है। शिवना प्रकाशन इस के लिये बधाई की पात्र है| आशा है पाठक इस पुस्तक का खुले दिल से स्वागत करेंगे और ये हाथों हाथ बिकेगी। आने वाले समय का ये उभरता हुया कवि, शायर, कहानीकार है जो हर विधा मे लिखता है। ब्लोग पर इसके इस फन को महसूस किया जा सकता है। कामना करती हूँ इस दीपक की लौ हमेशा सब के लिये दीपशिखा सी हो और इसकी चमक दुनिया भर में फैले।

पुस्तक ---- अनुभूतियाँ
कुल्र रचनायें---56
पृष्ठ संख्या--104
प्रकाशित मूल्य--- २५० रुपये
प्रचार हेतु प्रारंभिक मूल्य- १२५ रुपये
प्रकाशक -- शिवना प्रकाशन,
पी0सी0लैब, अपोजिट न्यू बस स्टैंड,
सिहोर(म0प्र0) 466001