शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

खंडित और सुविधाजनक व्याख्याओं पर कुछ तो बोलो गंगापुत्र


भारतीय साहित्य, इतिहास परम्परा में व्याख्या, पुनर्व्याख्या की स्थापित मान्यता सदैव से रही है. ऐतिहासिक घटनाओं को काल, परिस्थितियों के अनुसार व्याख्यायित किया जाता रहा है. इसके पीछे व्यक्तियों की जिज्ञासा, अन्वेषण करने की प्रवृत्ति रही है. महाभारत का नायक कौन के जवाब अर्जुन के प्रतिप्रश्न के रूप में जब वाक्य उभरा कि एकलव्य या दुर्योधन क्यों नहीं हो सकता तो समाजविज्ञानी के रूप में सक्रिय लेखक के दिमाग में तमाम संकल्पनाओं ने जन्म लिया. आज घर-घर में महाभारत मचा हुआ है जैसे सार्वभौमिक वाक्य के आलोक में उन तमाम संकल्पनाओं का, जिज्ञासाओं का समाधान करने गंगापुत्र भीष्म को सामने आना पड़ा. निश्चित रूप से महाभारत महज एक युद्ध नहीं, एक गाथा नहीं, एक इतिहास नहीं, एक महाकाव्य नहीं वरन प्रत्येक समाज का एक सत्य है, जिसे उस कालखंड के सामाजिक सन्दर्भों में अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया गया है.

समाजविज्ञानी डॉ० पवन विजय अपने उपन्यास के बहाने वर्तमान कालखंड की सामाजिकता के तमाम प्रश्नों को उभारते हैं. महाभारत युद्ध में शरशैय्या पर पड़े भीष्म पितामह की जिज्ञासाओं के रूप में एक इन्सान की अनेकानेक जिज्ञासाओं पर मंथन करते हैं और उसे तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार सुलझाने का यत्न भी करते हैं. इतिहास हमेशा विजेताओं द्वारा लिखित होता है, इसलिए उसमें विजेताओं का यशोगान होना स्वाभाविक है, के द्वारा वे न केवल महाभारतकालीन विजेता पक्ष पर सवाल खड़ा करते हैं वरन वर्तमान सामाजिक विसंगतियों पर भी कटाक्ष करते हैं. नियति किसी के कर्म कभी निर्धारित नहीं करती. आप आज क्या करोगे, यह विधाता की लेखनी तय नहीं करती; बल्कि आप जो करोगे, उसके अनुसार आपको कौन सा कर्म करने को दिया जाये या आपकी कौन सी भूमिका बनायी जाये, यह नियति तय करती है, के द्वारा लेखक स्पष्ट रूप से अपने उपन्यास के द्वारा सन्देश देता है. तत्कालीन स्थितियों में उठाये गए कदमों की आहट वर्तमान में भी साफ़-साफ़ सुनाई देती है. कर्मफल के द्वारा केवल व्यक्ति की नियति ही निर्धारित नहीं होती वरन जड़-चेतन-प्रकृति-चर-अचर आदि सभी की नियति का निर्धारण होता है. स्पष्ट है कि जब कर्म के आधार पर नियति का निर्धारण होता है तो इतिहास का लेखन करने वालों को स्वाभाविक रूप से तटस्थता का भाव अपनाना चाहिए. उनको विजेताओं के साथ-साथ पराजितों का भी पक्ष सामने रखना चाहिए.

यही कारण है कि लेखक ने गंगापुत्र को अंत-अंत तक तमाम सारी जिज्ञासाओं, शंकाओं के वशीभूत दिखाया है. वे कृष्ण से लेकर काल और संजय तक से अपनी शंका के समाधान हेतु लगातार सवाल-जवाब करते रहे हैं. धर्म-अधर्म के नाम पर चले भीषण युद्ध की विभीषिका में वे खुद को, दुर्योधन को एक अलग खांचे में देखना चाहते हैं. उनके सवालों और उसकी अनुगूंज में उभरते जवाबों में लेखक ने विजेता और पराजित दोनों का समान पक्ष लेकर कहीं-कहीं कौरवों के प्रति सहानुभूति दर्शायी है और कई जगहों पर पांडवों को गलत ठहराया है. ऐसा उन्होंने भले ही गंगापुत्र अथवा अन्य पात्रों के द्वारा करवाया हो मगर यह उनकी सम्पूर्ण कथानक पर निरपेक्ष दृष्टि का परिचायक है. अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो नामक जिस वाक्य से युधिष्ठिर का बचाव किया गया है, उस वाक्य को कहीं भी मैंने नहीं सुना, और न ही मेरे द्वारा कभी यह वाक्य अंकित किया गया, काल की यह स्वीकारोक्ति तत्कालीन प्रसंग के बीच से सत्य-असत्य के उदघाटन की राह प्रशस्त करती है.

सत्य-असत्य की इसी राह पर भीष्म व्यग्र हैं. खुद को सदैव हस्तिनापुर के सिंहासन से बाँधने के बाद भी वे कहीं न कहीं अंतर्मन से उचित-अनुचित में विभेद करने में संकोच भाव से घिरा पाते हैं. उनकी सदैव यही जानने की जिज्ञासा रही कि दुर्योधन ने जो किया क्या वो अधर्म था? उन्होंने जो कृत्य किये क्या वे इतिहास में उन्हें पाप का भागी बताएँगे? तभी वे काल से प्रश्न भी करते हैं कि जो कौरवों के भाग्य में था, वह उनके साथ हुआ, जो पांडवों के भाग्य में था उन्हें मिला ... फिर इन सबके बीच में मेरा सही अथवा गलत होना कैसे आ गया? क्या मैं इतना शक्तिशाली हो गया कि काल के कपाल पर लिखे अक्षरों को मेट डालता और उन पर नये शब्द रख देता? उनका यह प्रश्न महज प्रश्न नहीं वरन खुद को उस नियति से अलग करने की छटपटाहट है जो उनके व्यक्तित्व को सम्पूर्ण परिस्थितियों से बड़ा बनाती है. महाभारत युद्ध के जिस विकराल परिणाम को वे देख-समझ रहे हैं, उसमें वे खुद को केंद्रबिंदु माना जाना स्वीकार नहीं करना चाहते. यह जानते-समझते हुए भी युद्ध की आधारशिला के रूप में सत्यवती की महत्त्वाकांक्षा, शांतनु का काम और देवव्रत की प्रतिज्ञा ही प्रमुख है वे एकमात्र अंतिम कुरुवंशीय के रूप में युद्ध के आक्षेप से बाहर निकलना चाहते हैं.

उनकी इस व्यग्रता को बहुत हद तक उनकी माँ गंगा शांत करती है. भीष्म के भीष्म बने होने के कष्टमय समय के बीच उनकी माँ गंगा उनको देवव्रत रूप में समझाती है कि पुत्र देवव्रत! अपने मूल में जो है, उसके विरुद्ध कर्म करना और उसका परिणाम दोनों ही भयावह होता है, इसलिए अपनी चेतना को प्रकृति से जोड़ो और उसे जगाओ; उसका जागना ही तुम्हारे व लोक जीवन को मंगलमय मार्ग की ओर प्रशस्त करेगा. देखा जाये तो यह एक माँ गंगा का अपने पुत्र देवव्रत को दिया जाने वाला उपदेश नहीं वरन ज़िन्दगी का वो सार है जिसे समझने के बाद घर-घर में बने कुरुक्षेत्र स्वतः ही समाप्त हो जाएँ. यह मानवीय स्वभाव ही है जिसे बदलना सबके वश की बात नहीं होती है. लेखक ने इसे भीष्म पितामह के रूप में बड़े ही सुन्दर रूप में व्याख्यायित किया है. जिस व्यक्ति के पास इच्छामृत्यु पाने का आशीर्वाद हो, जो देवव्रत से भीष्म में परिवर्तित हो गया हो उसके बाद भी वह न केवल अपनी भूमिका के लिए वरन भविष्य में भी निर्धारित होने वाली अपनी भूमिका के लिए चिंतातुर बना हुआ है. लेखक कहता भी है कि मनुष्य होता ही ऐसा है; हर अस्तित्व पर प्रश्न करता है, पर स्वयं पर लगे प्रश्नचिह्नों पर चुप्पी लगा जाता है क्योंकि स्वयं को अस्वीकार करने का अर्थ है, स्वयं को अप्रमाणित करना, जिसे कोई व्यक्ति जीवित रहते कभी नहीं कर सकता. खुद भीष्म भी अपने को अप्रमाणित नहीं करना चाहते हैं. इसी के चलते वे सभी से अपने निर्णय पर सहमति-असहमति की मुहर लगवाना चाहते हैं. यही कारण है कि हर व्यक्ति अपना मूल्यांकन स्वयं करता है, और फिर उसकी स्वीकृति बाह्य जगत से चाहता है.

श्रीकृष्ण के रूप में और काल के साथ चलते संवादों से भीष्म को अपने सवालों के जवाब मिलते हैं और शांतचित्त, स्थिर होकर भीष्म का शरीर अलौकिक आभा से प्रकाशित होने लगता है. शंकाओं के शमन के साथ समाज को एक सन्देश देते हुए वे बैकुंठलोक को प्रयाण करने को तत्पर हो जाते हैं. मुक्ति के इस क्षण पर भी वे भली-भांति समझते हुए भी कि सभी अपने अनुसार इस गाथा को कहने सुनने को स्वतंत्र हैं, वे निश्चिन्त और आनंदित हैं. अट्ठावन दिनों की अपनी शरशैया यात्रा में इस युद्ध के पार्श्व में धर्म-अधर्म का स्वरूप जान चुके होते हैं. हस्तिनापुर के सिंहासन की रक्षा के वचन के पीछे की व्यक्तिनिष्ठता, वस्तुनिष्ठता को पहचान गए होते हैं. कदाचित उनके द्वारा लेखक का भी यही अभीष्ट रहा होगा कि वर्तमान समाज अपने धर्म-अधर्म को पहचाने. वर्तमान समय की सामाजिकता के मूल में छिपी कर्तव्य भावना के बोध को उभारे. मन-वचन-कर्म के साथ-साथ उसकी वस्तुनिष्ठता, व्यक्तिनिष्ठता को पहचाने.

संवाद-शैली में लिखे गए उपन्यास में युद्ध के बाद की स्थिति, परिस्थिति, कालखंड को उकेरने में जिस काल्पनिकता का समावेश लेखक ने किया है वह अद्भुत है. सोचा जा सकता है कि करोड़ों-करोड़ लोगों के हताहत होने पर तत्कालीन युद्धक्षेत्र की दशा क्या रही होगी. बोलो गंगापुत्र के द्वारा मौन को तोड़ने की कोशिश, उनकी जिज्ञासाओं के समाधान के बीच कौरवों के धर्म की चर्चा करके लेखक ने निश्चित ही शोध के नए द्वार खोलने का प्रयास किया है. गवेषणा शक्ति से परिपूर्ण लोगों के लिए शोध के नए-नए और विरल आयाम इसके माध्यम से मिलते हैं. साहित्यकारों को भी विचार करना चाहिए कि वे पराजितों के इतिहास को भी पुनर्व्याख्यायित करें मगर पूर्वाग्रह-रहित होकर.

समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : बोलो गंगापुत्र (उपन्यास)
लेखक : डॉ० पवन विजय
प्रकाशक : रेडग्रैब बुक्स, इलाहाबाद
संस्करण : प्रथम2018
ISBN : 978-93-87390-25-6


शनिवार, 30 जून 2018

प्रति प्रश्न : एक दृष्टि


प्रति प्रश्न : एक दृष्टि

सुरेन्द्र कुमार नायक के ‘प्रति प्रश्न’ उपन्यास में उपभोक्तावाद, बाजारीकरण तथा मूल्यहीनता के दाह परिलक्षित होते हैं. इस कृति का अधिकांश कथ्य वर्णात्मकता के माध्यम से प्रस्तुत हुआ है. वस्तुविधान रत्नेश, निधि, विजय, संता, रंजन, निमिष, डॉ० तिवारी तथा यत्किंचित रायबहादुर प्रभंज सिंह जू देव के इर्द-गिर्द घूमता है. रायबहादुर प्रभंज सिंह जू देव का पुत्र रत्नेश एक महाविद्यालय में प्राचार्य है. अतिसुन्दर निधि से रत्नेश की शादी होती है. आगे और अधिक शिक्षित होने के लिए रत्नेश निधि को घर में ही पढ़ाने के लिए अपने मित्र विजय को नियोजित कर देता है.

इस घटना के बाद ही कथा विन्यास में एक मोड़ आता है, जिसमें उपभोक्तावाद की गोद में पल रही वासनामूलक विलासिता के अनेक परिदृश्य विवक्षित हैं. कृतिक ने भूमंडलीकरण के कारण शनैः-शनैः भारतीय जीवन-मूल्यों तथा नैतिकताओं को परिवर्तित और बहिष्कृत दिखाया है. दिव्य गुणों से समलंकृता भारतीय नारी का यह भोगवादी अवतार रत्नेश की पत्नी निधि के माध्यम से व्यक्त होता है. पहले वह विजय - जो एक प्रवक्ता है और उसे पढ़ाने में सहयोग करता है – को अपनी देह-लिप्सा में आबद्ध करती है फिर कई पीढ़ियों से रत्नेश की खेती-बाड़ी देखने वाले युवक संता को रति-कर्म के लिए विवश करती है, फिर रत्नेश के साथ ही प्रवक्ता पद पर कार्यरत रंजन को अपनी भोगलिप्सा का साथी बनाती है. घर का सम्पूर्ण सात्त्विक परिवेश तहस-नहस हो जाता है. इस सबकी जानकारी होने पर रत्नेश को हृदयाघात होता है. महाविद्यालय के प्रबंधक वर्मा जी इस स्थिति में निधि को कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में नियुक्त कर देते हैं. कुएं से निकल कर समुद्र में आई निधि ने स्वयं को ऐन्द्रिय  भोगों से सराबोर कर दिया. इन कृत्यों के प्रभाव के रूप में निधि की बेटी कंगना से रंजन छलात्कार करता है और कंगना को कोर्ट मैरिज के लिए बाध्य कर देता है.

वासना की आँधियों से झकझोरा गया यह उपन्यास कई प्रश्न उत्पन्न करता है. उसमें से एक प्रमुख है कि देहमूलक विलासिता से सने इस उपन्यास को क्यों लिखा गया? ऐसे सवाल सांचे की ज़िन्दगी को ही स्वीकार करते हैं. त्याग, बलिदान जैसे मूल्यों तथा स्मृतिदर्शित सामाजिकता से ओत-प्रोत साहित्य की ही ऐसे लोग सराहना कर सकते हैं. यथार्थ से दूर भागकर रचनाकार तथा पाठक समाज की विडम्बनाओं, कुत्साओं तथा अस्तित्वखण्डन को नहीं रोक सकते जो वस्तुतः घटित हो रहा है, उसे अनावृत्त करके ही इन समस्याओं को हल करने के उपाय खोजे जा सकते हैं.

वर्णनात्मक शैली में लिखा गया उपन्यास इक्कीसवीं शताब्दी का श्वेतपत्र है. यह समाज की ऐसी झाँकी प्रस्तुत करता है, जिसमें राष्ट्र परिवार विश्व परिवार की वक्र-चेतना के परिदृश्यों के आभास प्रतीत होते हैं. भाषा को सरल रखने का प्रयास किया गया है किन्तु कहीं-कहीं तत्सम शब्दों का साभिप्राय सन्निवेश कृति को बोझिल बनाता है. विम्बविधान की दृष्टि से भी यह कृति प्रशंसनीय है. इतने व्यापक वस्तु-विन्यास के लिए लेखक को और पन्ने खर्च करने चाहिए थे ताकि घटनाचक्रों की रेल-पेल से यह उपन्यास मुक्त रहता. आत्माभिव्यक्ति किसी भी रचना की जीवन्तता की परिचायक है. आत्माभिव्यक्ति की दृष्टि से यह कृति पारदर्शी प्रतीतियों का शिलालेख है. प्रसाद गुण से संपन्न इस कृति में मुहावरों और अलंकारों का प्रयोग कथा-वस्तु की संप्रेषणीयता को सहज और बोधगम्य बनाता है. वैदर्भी रीति तथा कोमलावृत्ति का सर्वत्र प्रयोग हुआ है. कुछ स्थानों पर अंतर्द्वंद्व तथा मनोवैज्ञानिक धरातल इस कृति की अन्य विशेषताएं हैं.


डॉ० दिनेश चन्द्र द्विवेदी 
समीक्षक : डॉ० दिनेश चन्द्र द्विवेदी
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कृति : प्रति प्रश्न (उपन्यास)
लेखक : सुरेन्द्र कुमार नायक
प्रकाशक : पवनपुत्र पब्लिकेशन, शारदा नगर, लखनऊ
संस्करण : प्रथम, 2011
ISBN : 978-81-906345-7-1



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समीक्षक डॉ० दिनेश चन्द्र द्विवेदी जी द्वारा यह समीक्षा साहित्यिक पत्रिका 'स्पंदन' के लिए की गई थी. इसके कुछ दिन बाद उनका निधन हो गया. कतिपय कारणों से इसे प्रकाशित नहीं किया गया. 

बुधवार, 16 मई 2018

प्रेम और विरह-वेदना की कसक....


दो खण्डों में विभक्त प्रथम कविता संग्रह की रचनाएँ खंडित नहीं हैं. वे पाठक का तारतम्य अपने साथ-साथ खुद में अभिव्यक्त मनोभावनाओं से करवाती चलती हैं. ये किसी भी साहित्यकार के लिए सुखद अनुभूति होती है जबकि उसकी रचनाएँ उसकी कलम से साकार होने के बाद अपने विचारों को स्वतः आकार देती चलें. डॉ० अनिता सिंह की रचनाएँ कुछ ऐसा ही करती नजर आती हैं. उनकी गुमसुम कोपलें शीर्षक में जितनी गुमसुम नजर आती हैं वास्तव में उतनी गुमसुम नहीं हैं. इनके ऐसा होने के पीछे डॉ० अनिता का वो विश्वासी भाव है जो उन्होंने अपनी रचनाओं में व्यक्त कर रखा है. मुक्त रूप में उनकी गुमसुम कोपलें सफ़र करने को आतुर हैं. सफ़र बचपन से शुरू होकर भले ही दर्शन तक चला जाता हो मगर सभी का आंतिरक भाव बचपने से ओतप्रोत बना रहा. तभी तो मनमोहक संगीत में आत्मा संगत करती हुई बादल के बच्चों का पीछा तब तक करती है जब तक कि आकृति बिगड़ने न लगे.

बचपन की तरह खिलंदड स्वभाव लेकर कोई कोंपल गुमसुम रह ही नहीं सकती है, ये डॉ० अनिता ने अपने संग्रह में स्पष्ट रूप से समझाया है.
कहाँ हो जलधार... मेरी प्यास के
तेरे बिन... ये मन विकल
भले ही हो रहा हो मगर आगे ही पल
विहग का कलरव
तेरे
उदगार स्नेहिल
कोमल कान्त
पदावली सरीखे
गुनगुनाये मन
के द्वारा मन खुद में प्रसन्नचित्त होने का एहसास करता है. गुनगुनता मन अपने आपमें ही नहीं गुनगुना रहा है बल्कि प्रेम के सहज आकर्षण को महसूस भी कर रहा है. इसी सहज आकर्षण की डोर में बंधी कलम अनमनी होने के बाद भी मिलन की चाह रखती है.
आमंत्रण... स्नेह भरा
विवश करता...
झकझोरता... हृतन्त्रिकाएं
जागरण से... सुषुप्ति तक
अहर्निश...
जपता..... अजपा जाप
अनमना मन
जैसी गंभीर भाव-वेदना के द्वारा मिलन की चाह को भी कलम इंगित करती है और उसके कारण को भी क्योंकि
आखिर सध न पाता... ध्यान...
न हो पूरी.... समाधि
मिलन की है चाह... उत्कट
कब मिलोगे?
प्राण मेरे...

डॉ० अनिता की कलम गुमसुम कोंपलों की अंतर्वेदना को ही नहीं लिखती हैं वरन वे ओस के मोती भी सजा लाती हैं. यह अपने आपमें ही सहृदयता का सूचक होता है जो गुमसुम कोपलों को ओस के मोती के द्वारा सजाने का भाव प्रदर्शित किया जाता है. मुक्त रचनाओं से आगे की यात्रा जैसे-जैसे गीत-ग़ज़ल के द्वारा बढ़ती रहती है, पाठक मन को संतुष्टि का बोध होता जाता है.
रिश्तों को
पकने दो
हल्की-सी
आँच पर
अधपके रिश्ते
टूटते हैं ऐसे
कंकड़ ज्यूँ
कांच पर
का सहज भावबोध काव्य-रचनाओं की गहराई को बताने को पर्याप्त है. संबंधों को समझने की भावप्रवणता है तो भावपरक वेदना की अनुभूति भी है. लेखिका सहजता के साथ प्रकृति के साथ तादाम्य स्थपित करते हुए विरह की वेदना का सहज चित्र उकेर देती है. तभी तो ऐसा एहसास होता है जैसे कलम स्याही की जगह आँसुओं के द्वारा रचना निर्माण में प्रवृत्त है-
आज फिर रोएगी रात
आसमां धोएगी रात
वेदना के बोझ को
कब तलाक ढोएगी रात
अपने सिंचित कोष को
आज फिर खोएगी रात.

प्रेम मिलन की चाह का मुक्त स्वरूप और उसके बाद वेदना की आलंबनयुक्त रचना लेखिका की गंभीरता का परिचायक है. पहला काव्य संग्रह होने के बाद भी रचनाओं की गंभीरता, उनका सहज भावबोध, वैचारिकी का उत्कृष्ट विन्यास, मनोभावों का स्वाभाविक आलम्बन अनुप्राणित ह्रदय की अभिव्यक्ति चाहता है.
काट लें क्या, यूँ ही रात हम
याकि खुलकर, करें बात हम
का अनुरोध भी है तो
क्यों हैं ये आँखें नम, समझ लेते
कुछ तो हालत-ए-ग़म समझ लेते
जैसी बेबसी भी है. अनुरोध, निवेदन, बेबसी, वेदना, विरह जैसे विषयों पर शब्द-शब्द स्वयं कुछ कहता सा प्रतीत होता है जो पाठकों को अकेला नहीं रहने देता है. डॉ० अनिता की रचनाएँ और उनका विन्यास एक-एक पंक्ति के साथ पाठकों को उसके खुद के साथ जोड़ने में सफल रहता है. ऐसी ही मनोदशा के साथ मन-मयूर
काश कि इन सूनी राहों पर
थोड़ी देर... ठहर जाते.
सांझ ढले कुछ वादे करते
चाहे भोर... मुकर जाते
का ख्वाब भी रचता है किन्तु कसक बाकी है अभी और इसी कसक में
बूँदें छिपी दिखी हैं घन में
आशा एक जगी है मन में
सरसा दे प्यासी धरती को
यौवन आ जाए जीवन में.
की आस जगी हुई है, साथ ही  
मुस्कुरा कर पत्तियाँ, झिड़कती हैं ओस को
लौट आया है मुसाफिर, बड़ा मेहरबान निकला
जैसा सुखद एहसास भी छिपा मिलता है. इस सुखद एहसास के बाद भी कलम पीड़ा का गान करती है. इस पीड़ा में प्रेम की अभिव्यक्ति तो है ही उसके पार्श्व में संवेदना का भाव है. इस संवेदना में प्रेम द्वारा छले जाने का भाव है, खुद को अनचीने जाने का बिम्ब भी है.
मेरी कीमत को तो उसने
आँका कौड़ी मोल सदा
मेरी जेब देखकर खाली
अपना ऊँचा दाम लिखा.

निश्चित ही विरासत को अनिता जी संजोती ही नहीं वरन संवारती भी दिखती हैं. इस विरासत को संजोये रखने का भाव उनकी रचनाएँ स्वयं ही रखती हैं. प्रेम में सराबोर रचनाओं में करुणा है मगर उनमें क्रंदन नहीं है. प्रेम की अभिव्यक्ति है मगर उसमें वासना नहीं है. विरह वेदना की अभिव्यक्ति है मगर उसमें निराशा नहीं है. मिलन की आस है, मन का दर्शन है, जज्बातों का गाम्भीर्य है, एहसासों का बिम्ब विधान है, भावनाओं की उत्तुंग शिखर है, अपनेपन की कोमलकांत व्यंजना है. इस तरह का आलंकारिक वैविध्य बहुत कम देखने को मिलता है जबकि प्रेम में विरह का चित्रण हो रहा हो और उसमें भावनाओं की गंभीरता कम न होने पाए. अनिता जी ऐसा कर पाने में इसलिए भी सफल हुई हैं क्योंकि उनकी रचनाओं में जानबूझकर बनाया गया आलंकारिक भाव नहीं है. रचनाओं को साहित्यिकता का पुट देने की इच्छा से जबरन ओढ़ाया गया भाव-बोध नहीं है. उनकी रचनाएँ चाहे वे मुक्त छंद रहे हों या फिर गीत-ग़ज़ल एकसमान रूप से सरल, सहज, अपने से लगने वाले शब्दों के साथ स्वतः प्रवाहमान होते रहते हैं. पाठक रचनाओं को सिर्फ पढ़ता ही नहीं वरन उसको महसूस करता हुआ उनके साथ आगे बढ़ता जाता है.

यह सिर्फ संयोग नहीं वरन उसी सांस्कृतिक विरासत का सुखद परिणाम है, जिसकी चर्चा वे स्वयं करती हैं. गीत-ग़ज़ल-मुक्तक पर समान रूप से अधिकार रखने की कला उनके श्रम का ही नहीं वरन उस सांस्कृतिक विरासत के हस्तांतरण का भी प्रतिफल है जिसे अनिता जी ने कलम और भावनाओं के सहारे एकाकार बनाया हुआ है. उनकी कही-अनकही के आगे का संसार माँ के आँचल में पल्लवित होता है, जहाँ एहसास है, ज़िन्दगी है, कामना है. उनका अनमना-मन शरद में गाँव की यात्रा करता है तो चाँद को आवेदन करता है कि उतर आ धरती पर आज करेंगे बात

उनके पहले काव्य-संग्रह की साहित्यिक गरिमा, संवेदना देखकर निश्चित ही विश्वास किया जा सकता है कि भविष्य में और भी उत्कृष्ट रचना-संसार से परिचित होने का अवसर पाठकों को मिलेगा.
सूरज के आगमन का, बताएगा चाँद क्या
दिन कब उगेगा, भोर के तारे से देखिये
के सहज भाव से अनिता सिंह की भावी यात्रा को समझा जा सकता है, आखिर कसक... बाकी है अभी.

समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : कसक... बाकी है अभी (कविता संग्रह)
लेखिका : डॉ० अनिता सिंह
प्रकाशक : हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी, नई दिल्ली
संस्करण : प्रथम, 2017
ISBN : 978-81-932721-4-5